मंज़र पता नहीं , कारवाँ चलती रही
लम्हें गुजरतें रहें , पर दास्तां कहीं नहीं
फलसफा कुछ ऐसा ,
तेरी आहट और कुछ हवा का झौका ,
असर कुछ ऐसा उन निगाहों की ,
कारवाँ थमी , पर दास्ताँ फिरभी नहीं
वो निगाहें ; पर जाने कहाँ मंज़र ,
वो लब्ज़ , वो मुस्कराहटें ; पर जाने कहाँ मंज़र
लम्हें तो गुज़रते पर लम्हों का फ़कीर
दास्ताँ तो बस हाथों की लकीर।।।