ये कैसी है विडम्बना,
अक्सर मैंने चाहा सून्य हो दूर,
पूर्ण विराम की चाहत नहीं,
और जीवन मरण से रहूँ अति दूर,
तुम आये मेरे जीवन में,
माधव की चाहत लेकर,
माधवता को कुछ ऐसे घोला,
चहु ओर प्रतीत हुआ सून्य का मेला,
तुझसे जुड़ा कुछ ऐसे,
मन में हुई अति कोलाहल,
जीवन थमी और लगी सून्य सी,
सून्य सून्य में ग़ुम हुआ मैं पल अति पल,
सून्य को पाऊँ ,
सून्य को चाहूं,
सून्य सून्य से जुड़ा मेरा कल कल ,
अश्रु बहे सून्य की ओर ,
नयन खोजे तुन्हें चहु ओर,
मन की व्यथा कुछ ऐसी ,
सून्य को चाहे कुछ ऐसी,
जीवन का पूर्ण विराम तो सून्य ,
जीवन की प्रारंभ भी सून्य ,
फिर क्यूँ न मैं चाहूं सून्य,
क्यूँ न मैं पाऊँ सून्य,
मैं मिल जाऊं सून्य में,
तुझमें कुछ ऐसे घुल जाऊं ........
सून्य बन के घुल जाऊं तुझ में ,
जीवन के इस रहस्य को प्रणाम,
सून्य की सत्य को प्रणाम ......................
सून्य- शून्य!!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाव!